Saturday, 1 July 2017

‘कैरियर’ का चुनाव चांस से नही चॉइस के आधार पर ही करे

आधुनिकता के इस दौर में भी कैरियर’ का चुनाव हम च्वायस से नहीं चांस के आधार पर ही करते हैं। हम अक्सर उनलोगों से कैरियर सम्बन्धी सलाह लेते है जो पहले से सफल है या सफलता के राह पर है । ये अच्छी बात है की आपने किसी अनुभवी से सलाह लिया पर क्या आपको ये पता है की आपने जिनसे सलाह लिया है उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर दिया है तो ऐसे में ये जरुरी नही की जो उनकी क्षमता है या जैसा उनको माहौल मिला वैसा ही आपको मिले इसलिए कैरियर में समझौता करने से बेहतर है की आप अपने आप को जाने, अपने जन्मजात क्षमता को पहचाने, और  इसके लिए कही जाने की जरुरत नही बस कॉल करे 9871949259 पर और घर बैठे करियर सम्बंधित सलाह सुझाव निःशुल्क प्राप्त करे I  आमतौर पर अधिकांश छात्र-छात्राएं स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद चाहे-अनचाहे कालेजों में ही दाखिला ले लेते हैं। आगे पढ़ाई जारी रखने की अपेक्षित इच्छा-शक्ति व लगन भले ही उनमें बिल्कुल नहीं होंलेकिन पारिवारिक दबाव और सामाजिक प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़कर उन्हें क्षेत्र विषय में अपनी दिलचस्पी व स्थान को ताक पर रखकर बगैर सोचे-विचारे आई.ए.-बी.ए. मे अपना नाम दर्ज कराना पड़ता है। जब कैरियर की दुनिया में एक नहींअनेकानेक संभावनाएं सामने हैंतब भी अधिकांश छात्रों के माता-पिता उनके भविष्य को सजाने-संवारने का एकमात्र रास्ता उच्च शिक्षा ही मानते हैं तथा उसका केन्द्र कालेज या विश्वविद्यालय को, अपने बच्चो के भोजनकपडे़ अथवा घूमने-फिरने के शौक पर भले ही वे किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाते होंकैरियर के चुनाव में किसी भी तरह की स्वतंत्रता देना उन्हें नागवार गुजरने लगता है या वे फिर इसे उचित भी नहीं समझते।  इतना ही नहीं सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि अपने यहां के अधिकांश छात्र-छात्राओं को यह भी नहीं मालूम कि वे अपनी शैक्षणिक योग्यताअभिरूचि व क्षमता के उपयुक्त किस कोर्स का चुनाव करे। उन्हे यह भी पता नहीं कि आज इतने अधिक व्यावसायिक कोर्स उपलब्ध है कि सामान्य रूप से आई.ए.बी.ए. कक्षाओं में दाखिला लेकर उच्च शिक्षा पर बोझ बढ़ाने तथा दोबारा बेरोजगार बने रहने की जहमत मोल लेने अथवा पारिवारिक उपेक्षा व सामाजिक तिरस्कार से बचने के लिए बेहतर है कि किसी ऐसे कोर्स का चुनाव किया जाये जिसमें काफी पर्याप्त दिलचस्पी होआगे बढ़ने के तमाम अवसर हों तथा सबसे बड़ी बात यह हो कि स्वनियोजन अथवा रोजगार की शत-प्रतिशत गारंटी हो।
मगर इसके लिए सर्वाधिक जरूरी यह जानना है कि आपके लिए कौनसा कोर्स हर मायने में उपयोगी हो सकता है या फिर आपकी योग्यता व रूचियों के अनुकूल हो सकता है ताकि उसे आप लगन से पूरा कर सकें। इसके लिए आप हमसे सम्पर्क कर समस्त जानकारी हासिल कर सकते है आज भारत में उपलब्ध तमाम सामान्य व्यावसायिकगैर व्यावसायिक व तकनीकी कोर्स से सम्बन्धित जानकारियां उपलब्ध हैंजहां से आप किसी भी तरह की मदद या सुझाव मांग सकते हैं। पिछले एक दशक में शिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में सैकड़ों ऐसे अवसर पैदा हुए हैं जिसके बारें में अधिकांश लोगों को आज भी कोई जानकारी नहीं। माता-पिता अपनी अपूर्ण इच्छा व आकांक्षा अपने बच्चों पर थोप देते हैं तथा बच्चे भी पर्याप्त जानकारी के अभाव में या फिर पारिवारिक अनुशासन का लिहाज करते हुए अनिच्छापूर्वक उसी कोर्स-विशेष को अपनाने के लिए मजबूर होते हैं। हालांकि यह सबसे खतरनाक स्थिति होती है और उसके नतीजे भी कालान्तर में कष्टदायक ही होते हैं। आज उच्च शिक्षा मे सिर्फ उन्ही लोगों को जाना चाहिए जिनकी दिलचस्पी वाकई अध्ययन तथा शोध मे हैअन्यथा उन्हे देश मे उपलब्ध अन्य अवसरो मे से ही अपने भविष्य की सुरक्षा की तलाश करनी चाहिए। आज स्पोर्टसमेडिसिनबॉयोटेक्लॉजीकास्मेटॉलॉजीफैशनडिजायन तथा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में सैकड़ों स्वर्णिम संभावनाएं उपलब्ध हैंफिर क्यों नहीं उनमें अपनी क्षमता व प्रतिभा आजमायी जाये। स्कूल शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद कैरियर की चिंता व उसका चुनाव की प्रक्रिया इतनी अव्यावहारिक ;पर आज भी प्रचलन मेंद्ध है कि अधिकांश छात्र-छात्राएं आगे चलकर अपने ही चयन पर तथा अपने ही कोर्स से घृणा करने लग जाते हैं। लेकिन तब तक देर इतनी हो चुकी होती है कि सिवाय पश्चाताप व सिर धुनने के और कोई चारा भी नहीं रह जाता। दूसरी ओर जो कैरियर का सही चुनाव ;यहां सही’ से तात्पर्य योग्यताक्षमता व अभिरूचि के अनुरूप हैंद्ध करने से असफल हो जाते हैंवे भारत छोड़कर विदेशों में जाने की बात तो अपने आसपास फटकने भी नहीं देते। भारतीय शिक्षा को कोसने का काम भी उन्हीं का रह जाता है जो कैरियर के विवेकपूर्ण चुनाव में विफल रहते हैं। एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुझाव यह कि कैरियर के चुनाव का सही वक्त दसवीं कक्षा होनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा समय होता है जब छात्र-छात्राओं में सर्वाधिक अनिर्णय की स्थिति होती है पर साथ ही साथ उन्हें सबसे अधिक सही सुझाव और दिशा-निर्देश की भी आवश्यकता होती है। विषयों के चुनाव का यह सबसे सही वक्त होता हैपर्याप्त सोच-विचार कर अपनी रूचि के विषय का चयन उसमें कैरियर की संभावनाओं के मद्देनजर ही करना चाहिए। ऐसा नहीं कि आर्ट्स पढ़ने की इच्छा हो और साइंस में दाखिला लेने की मजबूरीकॉमर्स में दिलचस्पी हो तथा इंजीनियरिंग कोर्स को अपनाने का दबावमेडिकल मे जाने की इच्छा होएम.बी.ए. मे दाखिला लेने की विवशता। इस तरह आधे-अधूरे मन से किये गये कैरियर के चुनाव में वांछित सफलता तो संदिग्ध रहती ही हैइच्छित नतीजे न मिलने से जीवन भर के लिए ही वह कोर्स अभिशाप बन जाता है। होना तो यह चाहिए कि आप जो भी कोर्स करने जा रहे होंउसके बारे में अथवा उसकी संभावनाओं से आपको पूर्णतया वाकिफ होना चाहिए कि आखिर आप वह कोर्स किस लिये कर रहे हैं। कोर्स का अनायास चयन नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर न तो आप उस कोर्स के प्रति सीरियस हो सकेंगे और न ही अपने प्रति समुचित न्याय कर सकेंगे। आपको उक्त कोर्स में संतुष्टि भी नहीं मिलेगीन पर्याप्त दिलचस्पी जगेगी और फिर नतीजा निराशा ही निराशा।
छात्र-छात्राओं को हताशा अथवा निराशा का शिकार होने से बचाने के लिए  सर्वप्रथम छात्र-छात्राओं से यह पता किया जाता है कि किस तरह के विषय में उनकी रूचि हैतदनुसार ही उक्त क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों से उसे वाकिफ कराया जाता है ताकि बगैर किसी दबाव के कैरियर के चयन की स्वतंत्रता में स्वविवेक के भी पर्याप्त इस्तेमाल का मौका उन्हें मिल सके। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि मां-बाप अपने बेटे के आई.ए.एस. बनने का ख्वाब देखते है और उसी अनुसार उसकी शिक्षा पर भी बल देते है पर वह एक बिजनेंसमैन बनकर रह जाता है। कैरियर के चयन मे स्वतंत्रता न देने का ही यह नतीजा है कि उहापोह का शिकार छात्र कभी-कभार न घर का रह जाता है और न घाट का।
  DMIT  द्वारा छात्र-छात्राओं की अभिरूचि जान लेने पर उन्हें स्वयं कैरियर प्लान’ बनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। ऐसा देखा गया है कि रूचि के किसी भी क्षेत्र विशेष में कैरियर बनाने की तमन्ना के विभिन्न रास्ते दिखा देने भर से ही छात्र-छात्राओं में उसे पूरा करने की इच्छा भी प्रबल होने लगती है। उनमें अनिर्णय जैसी स्थिति हर्गिज नहीं रहती तथा वे कैरियर विशेष के विभिन्न पहलुओं व विभिन्न रास्तों से परिचित होकर फैसला करने की स्थिति में होते हैं। अब और कंफ्यूज  रहने की जरुरत नही है आज ही संपर्क करे हम आपको आपके जन्मजात प्रतिभा के आधार पर पर आपको  करियर विकल्प देंगे जिसमें आप शीर्ष तक पहुँच सके ।  हम छात्र-छात्राओं को शिक्षा व कैरियर में उनकी अभिरूचि ही नही बल्कि उनके जन्मजात प्रतिभा व क्षमता के अनुसार यह जानकारी देते है कि वे अपने देश में उपलब्ध व्यावसायिक अवसरों से किस तरह फायदा लेकर अपना भविष्य बना सकते हैं I कैरियर के चुनाव मे उधेड़बुन की स्थिति नहीं होनी चाहिए। फैसला बिल्कुल अपने लक्ष्य को केन्द्र में लेकर होना चाहिए। यदि आई.ए.एस. बनना है तो अपको किस रूचि के विषय को अपना कर आसानी से कामयाबी हासिल की जा सकती हैइसका चयन भी सर्वप्रथम अत्यावश्यक है। अब और कंफ्यूज  रहने की जरुरत नही है आज ही संपर्क करे 9871949259 से, हम आपको आपके जन्मजात प्रतिभा के आधार पर हम आपको  करियर विकल्प देंगे जिसमें आप शीर्ष तक पहुँच सके ।
करियर सम्बंधित सलाह सुझाव के लिए इमेल करे anandmohan.dmt@gmail.com

मंदबुद्धि - क्या उपहास के पात्र है ? अथवा प्रशंसा व संवेदना के ?

हमारे समाज में मंदबुद्धि बच्चा उसे कहा जाता है जिसका बौद्धिक विकास स्तर उसकी उम्र के अन्य बच्चों की अपेक्षा कम होता है । इसकी वजह से उसका बोलचाल का तरीका व व्यवहार काफी बचकाना होता है।
किसी भी परिवार में मंदबुद्धि बच्चे का आना अभिशाप माना जाता है। उसके साथ असामान्य व्यवहार किया जाता है। और कई बार तो उसका नाम ही पगलारख दिया जाता है। यह बच्चा पास-पड़ोस व कई बार तो घर वालों के भी मजाक का पात्र बनता है।
पर क्या ! उस बच्चे की स्थिति में उसका अपना कोई हाथ है? जाहिर है कि नहीं! फिर वह अपनी स्थिति, जो कि ईश्वर की देन है, की सज़ा क्यों भुगते? और सोचा जाए तो क्या इसमें किसी का भी दोष है? कौन माँ-बाप चाहेंगे कि उनकी संतान इस स्थिति में हो? यह स्थिति किसके लिए रूचिकर या फायदेमंद होगी? इन सभी सवालों के जवाब में शायद ही किसी को कोई संशय होगा लेकिन फिर भी आमतौर पर सभी लोग इन बच्चों को हेयदृष्टि से देखते हैं और हमारे समाज में इससे संबंधित कई भ्रांतियां भी प्रचलित हैं।
इन बच्चों को देखकर साधारण तथा सबसे पहला ख्याल लोगों के मन में यही आता है कि ये सब माँ-बाप या परिवार के बुरे कर्मो का फल है । और तो और, अक्सर माँ को ही दोषी माना जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि यह स्थिति कभी भी किसी भी परिवार में आ सकती है और मेडिकल साइन्स में इसके अनेक कारण बताए गए हैं। यह समस्या गर्भावस्था, प्रसव के दौरान या शैशवकाल की किसी समस्या अथवा बीमारी की वजह से बच्चे के दिमाग पर असर होने पर उत्पन्न होती है। किन्तु यह बढ़ने वाली बीमारी नहीं है अतः यदि छोटी अवस्था से ऐसे शिशु को उचिल प्रशिक्षण व सहायक थेरेपी दी जाए तो उसका विकास अच्छा होता है तथा वह काफी हद तक आत्मनिर्भर हो सकता है। केवल गंभीर व अतिगंभीर मंदता वाले बच्चों की आत्मनिर्भरता में दिक्कत होती है परन्तु यह स्थिति मानसिक मंदता के केवल कुछ ही बच्चों में होती है । और यह भी सत्य है कि यह किसी को दोष नहीं है, खासकर माँ को तो बिल्कुल भी नहीं। बच्चों को तो इससे सबसे अधिक तकलीफ होती है क्योंकि इस बच्चे का पालन-पोषण अत्यधिक मेहनत और जिम्मेदारी का काम है जो माँ को ही करना पड़ता है । और यह प्रक्रिया सालों-साल चलती है। माँ के लिए तो इस बच्चे का पालन-पोषण तपस्या के समान है।
दूसरा विचार जो आमतौर पर लोगों के मन में आता है वह यह है कि ये बच्चे कुछ सीख नहीं सकते और ताउम्र अपने घर-परिवार पर बोझ बने रहते हैं। किन्तु असलियत में ये बच्चे काफी कुछ सीख सकते हैं। इनकी सीखने की गति धीमी होती है । हम लाये है एक ऐसा आधुनिक टेक्नोलोजी D.M.I.T जिसके मदद से बच्चो की सिखने की क्षमता ज्ञात हो जाती है, उसके बाद इनको कार्यात्मक शिक्षा दी जाती है जिससे ये दैनिक जीवन में आत्मनिर्भर हो जाते हैं तथा व्यावसायिक शिक्षा के द्वारा आर्थिक रूप से भी स्वावलंबी बन सकते हैं। जो लोग इन बच्चों के संपर्क में आए होंगे वे जानते होंगे कि ये बच्चे काम सीख लेते हैं उसे बहुत ही कायदे से करते हैं और अपने कार्य के प्रति पूरे ईमानदार होते हैं।
हमारे समाज मे अक्सर सब मानसिक मंदता और मनोवैज्ञानिक बीमारियों को एक ही समझते हैं यह बहुत बड़ी गलती है तथा मंदबुद्धि बच्चे के साथ अन्याय है क्योकि मंदबुद्धि बच्चे की कार्यक्षमता, व्यवहार व सोंच अपनी उम्र से काफी कम उम्र के सामान्य बच्चे की तरह होती है तथा उचित मार्गदर्शन से उसका विकास सीघ्र होता है। इसके विपरीत मनोवैज्ञानिक बीमारी में आदमी की सोंच व व्यवहार अप्राकृतिक होता है तथा बिना इलाज यह समस्या बढ़ती जाती है। जबकि मानसिक मंदता के लिए किसी दवा की आवश्यकता नहीं होती है।
अक्सर यह भी देखा गया है कि लोग मंदबुद्धि बच्चों से डरते हैं कि ये दूसरों को नुकसान पहुचायेंगें । इस विचार के एकदम विपरीत, ये बच्चे अक्सर बहुत ही सौम्य व प्यार करने वाले होते हैं। मारपीट तोड़फोड़ आदि व्यवहार संबंधी दोष इनमें अनुचित माहौल की वजह से उत्पन्न हो जाते हैं और सही माहौल देने पर इस तरह के व्यवहार ठीक भी हो जाते हैं। यह जरूर है कि कभी-कभी ये बच्चे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति उचित तरीके से नहीं कर पाते हैं और हमें उनका व्यवहार अजीब लगता है किन्तु सही प्रशिक्षण से सही अभिव्यक्ति भी ये शीघ्र सीख लेते हैं।
यदि हम यह सोचें कि इन बच्चों के संपर्क में अन्य बच्चे भी गलत आदतें सीख जायेंगें तो हमारे समाज में वैसे भी अनेक बुराइयाँ हैं। जब हम उनसे बचने के लिए अपने बच्चे का उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं तो मंदबुद्धि बच्चे की गलत आदतें सीखने से भी हम उन्हें रोक सकते हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है कि मंदबुद्धि बच्चों को हम खुले दिल से अपनाएं उन्हें अपने समाज व परिवार का ही एक हिस्सा समझें। रही बात पूजा-पाठ,ब्रत-अनुष्ठान, टोटके आदि की, तो ये सब केवल मन की शांति के लिए ही उपयोगी हैं। बच्चे की स्थिति या उसकी प्रगति में इन सबका कोई असर नहीं होते है अपितु समय ही नष्ट होना है। जिस चीज की इन्हें आवश्यकता है वह है हमारा भरपूर प्यार व प्रोत्साहन इनकी जरूरत यह है कि हम इन्हें पूरी तरह से अपनाएं ओर इनके प्रति सकारात्मक रवैया रखें।
हमारे मानव शरीर में अनेकों अंग हैं और हमेशा हर अंग सूचारू रूप से काम करता रहे यह तो संभव नहीं है। यदि किसी को गुर्दे को रोग होता है, तो हृदय रोग होता है या पेट की या फेफड़े की बीमारी होती है तो हम उसका यथोचित उपचार करवाते हैं किन्तु यदि दिमाग की कार्यक्षमता कुछ कम होती है तो उस इंसान का उपहास करते हैं, भेदभाव करते हैं। क्या यह उचित है? एक बार कलकत्ता की रानी के मंदिर की मूर्ति का हाथ टूट गयी। रानी ने रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा कि क्या यह मूर्ति गंगा में प्रवाहित कर दी जाए। परमहंस जी ने उनसे पलट कर सवाल किया कि यदि आपके दामाद का हाथ टूट जाए तो आप क्या करेंगी? परमहंस जी का कहना था कि हमारा हर कृत्य भावनाओं से ही संचालित होता है इसलिए यदि हम इन बच्चों को अपने समाज और परिवार का हिस्सा मानकर चलें तो इनके प्रति हमारा नज़रिया स्वयं बदल जाएगा।
आज हमारा फर्ज़ यह है कि इन बच्चों को छोटी उम्र से उचित शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाए, इनकी कमजोरियों को दूर करने के लिए उचित उपाय किए जायें और इनके हुनर को बढ़ावा देने के लिए उचित अवसर दिए जाएं। बच्चे की स्थिति को समझते हुए उनकी क्षमता के अनुसार उन्हें कार्य सिखाया जाए जिससे वे अपना कार्य स्वयं बेहतर ढंग से कर पाएं तथा घर समाज का उपयोगी किस्सा बन सकें।
बच्चों के अलावा और जिनको समाज की सही सोंच व सहायता की आवश्यकता है वह हैं इन बच्चों के अभिभावक! बच्चों के साथ-साथ वे भी समाज से कटते जाते हैं। अपने बच्चे की स्थिति व उसके भविष्य को स्वीकार कर पाना ही उनके लिए काफी मुश्किल हो जाता है, ऊपर से बच्चे के प्रति दूसरों की उपेक्षा व तिरस्कार भी मिलता है। इसके साथ-साथ बच्चे की परवरिश की अतिरिक्त जिम्मेदारी का दबाव अभिभावकों में कई बार अवसाद व हीन-भावना की स्थिति उत्पन्न कर देता है। कई बार वे इस स्थिति को स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं और पलायन-वादी रवैया अपना लेते हैं। वे बच्चे की जरूरतों को अनदेखा करके अन्य चीजों में अपनी खुशियाँ ढूढ़ने लगते हैं लेकिन उनका कर्तव्य बोध उन्हें वहां भी खुश नहीं रहने देता।
इस सब का सीधा असर बच्चे पर ही पड़ता है क्योंकि जो उसके सीखने की उम्र है वो तो इन्हीं सब बातों में निकल जाती है और जितना विकास हो सकता था वो नहीं होता है। इसके अलावा समुचित प्यार व देखभाल के अभाव में बच्चे में व्यवहार संबंधी दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं जो कि उसके विकास में बाधक होते है तथा घरवालों के लिए भी कष्टकारी होते हैं।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए हम सब को यह सोंचना है कि क्या हममें से कोई भी संपूर्ण हैं? कमियां तो सभी में होती हैं। ऐसे में इन बच्चों का तिरस्कार करना क्या उचित है? किसी ना किसी रूप में ईश्वर की उपासना हम सभी करते हैं तो फिर ईश्वर की इस रचना की उपेक्षा करना क्या न्याय-संगत है? वह बच्चा जो अपनी जरूरत और इच्छा व्यक्त करने तक में असमर्थ है और वे अभिभावक जो तन-मन धन से अपने बच्चे की सेवा में लगे रहते हैं, क्या उपहास के पात्र है अथवा प्रशंसा व संवेदना के ?
हम लोगो को उनकी जन्मजात क्षमता व प्रतिभा को उजागर कर उन्हें उनके जीवन को और बेहतर बनाने में मदद करते है अधिक  जानकारी और करियर काउन्सलिंग के लिए व्हाटसैप  करे +91-9871949259, पर या फिर इमेल करे anandmohan.dmt@gmail.com


Friday, 30 June 2017

बच्चे की बुद्धि को जबरदस्ती हम नही बढ़ा  सकते है . हम केवल बच्चे के आत्मिक बल को बढा सकते है I माता पिता अपने बच्चो के लिए क्या कर सकते है .. क्या नही कर सकते है ..ये हमें पता होना चाहिए हमे बच्चो को हमेशा प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि हम जो बच्चो को बोलते है बच्चा अपने बारे में वैसा ही स्व्मान बना लेते है ... 





Thursday, 29 June 2017

मानव जीवन में शिक्षा का अर्थ :-

मित्रो शिक्षा शब्द की उत्पति सभी भाषा की जननी संस्कृत भाषा के शिक्षधातु से बना है। जिसका अर्थ है सीखना या सिखाना। शिक्षाशब्द का अंग्रेजी समानार्थक शब्द “Education” (एजुकेशन) जो की लेटिन भाषा के “Educatum”(एजुकेटम) शब्द से बना है तथा “Educatum”(एजुकेटम) शब्द स्वयं लैटिन भाषा के E (ए) तथा Duco (ड्यूको) शब्दों से मिलकर बना है। E (ए) शब्द का अर्थ है अंदर सेऔर Duco (ड्यूको) शब्द का अर्थ है आगे बढ़ना। अतः “Education” का शाब्दिक अर्थ अंदर से आगे बढ़नाहै।  इसी प्रकार लेकिन लैटिन भाषा के “Educare”(एजुकेयर) तथा “Educere” (एजुशियर) शब्दों को भी “Education”(एजुकेशन) शब्द के मूल के रूप में स्वीकार किया जाता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शिक्षाशब्द का प्रयोग व्यक्ति या बालक की आन्तरिक शक्तियों को बाहर लाने अथवा विकसित करने की क्रिया से लिया जाता है।
मित्रो दुर्भाग्यवश आज की शिक्षा सिर्फ सुचना तक सिमित रह गयी है, हर माँ बाप अपने बच्चो को सिर्फ व्यावसायिक पाठ्यक्रम ही पढ़ा रहे है जिससे बच्चे जल्दी से जल्दी नोट छापने की मशीन बन सके । दोस्तों वर्तमान की शिक्षा व्यवस्था में अगर जरुरी बदलाव नही लाया गया तो वो दिन दूर नही जब आने वाली पीढ़ी अपने गौरवशाली स्वर्णिम भारत के इतिहास को भूलते हुवे अपना नैतिक उत्थान नही कर पाएंगे
शिक्षा की परिभाषायें :-
पूज्य स्वामी विवेकानंद के अनुसार, “मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है
महात्मा गांधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक या मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क या आत्मा के
सर्वांगीण  एवं सर्वोत्तम विकास से है।
दार्शनिक फ्रावेल के अनुसार, “शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक बालक अपनी शक्तियों का विकास करता है।
अरस्तु के अनुसार, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है।
हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार, “शिक्षा से तात्पर्य है अन्तर्निहित शक्तियों तथा बाह्य जगत के मध्य समन्वय स्थापित करना है।
पेस्टालाजी के अनुसार, “मानव की आंतरिक शक्तियों का स्वभाविक व सामंजस्यपूर्ण प्रगतिशील विकास
ही शिक्षा है।  परन्तु आप अगर आज के वर्तमान शिक्षा पद्धति को देखे तो उपरोक्त महापुरुष के कथन से दूर दूर तक कोई रिश्ता नही है, और यही कारण है की आज के युवा बेरोजगार होते जा रहे है ।  अगर हर युवा अपने जन्मजात क्षमता और प्रतिभा को जानते हुवे अपने कौशल का विकाश करे तो कोई भी युवा बेरोजगार नही रहेगा, अतः आप चाहते है की हमारे देश के युवा बेरोजगार णा रहे तो आज ही संपर्क करे और जाने अपना जन्मजात क्षमता एवं प्रतिभा , ज्यादा जानकारी के लिए संपर्क करे +91-9871949259 आप हमें anandmohan.dmt@gmail.com पर अपने सवालों के साथ  इमेल भी भेज सकते है 


वर्तमान शिक्षण प्रणाली आ एकर दुष्परिणाम के जिम्मेदार के ?

अभी हालहि  मधुबनी मे मिथिला सेवी राघबेन्द्र रमण केर अनुज बारहवीं परीक्षा मे अनुतीर्ण भेलाक कारणे  आत्महत्या कय लेलन्हि! शोकाकुल परिवार के व्यथा अपने सब बुइझ सकैत छी ! मुदा अहाँ लेल त इ एकटा न्यूज़ मात्र भ सकैय कियाकि अहाँ सब सबटा दोष सरकार के दय अपन कर्तव्य के इति श्री बुइझ लैत छी !
ई घटना मात्र सरकार के शिक्षा व्यवस्था पर नै अपितु हमरा आहाँक समाजक मानसिकता पर सेहो बड्ड पैघ प्रश्न चिन्ह छैक! हम सभ अपना परिवारक  बच्चा के गुण-अवगुण, आ ओकर मष्तिष्क में अद्भुत क्षमता से अनभिग्य छि आ ओकरा अपना/समाजक हिसाब स चलाब चाहै छि बिना इ सोचने की अहाँ के बच्चा कोनो कम्पुटर नै जे अहाँ अपना पसंद के सोफ्टवेयर इंस्टाल क लेब ! देखियो अहांक बच्चा के मष्तिष्क के प्रोग्रामिंग गर्भावस्था के चारिम सप्ताह से शुरू भ गेल रहै, आ ऐना में अहाँ अपना हिसाब स प्रोग्रामिंग कर चाहब त रिजल्ट केर जिम्मेदार भी अहिं के बन परत !
कोनो भी बच्चा मंदबुद्धि नै होइत छैक, मुदा जौ कोनो विशेष क्षेत्र में ओकर रूचि नै लागल, या ओ ओही विशेष क्षेत्र में कमजोर छै त हम अहाँ आ हमर समाज ओही बच्चा के मंदबुद्धि कहिते कहिते ओकरा मंदबुद्धि बना क छोरय छि ! ऐना में कहू जे दोषी की  ओ बच्चा ? जेकर मष्तिष्क निर्माण में हमर अहांक कोनो योगदान नै , आ की हम अहाँ जे ओकरा मंदबुद्धि बनाव में अपन पूरा योगदान दैत छि ?
देखियौ परीक्षा मे भेटल प्राप्तांक सं  अहाँ बच्चा के प्रतिभा के आकलन नै करु, ओकर प्रतिभा के चिन्हु आ ओकर विकास करियो, तखने एकटा स्वस्थ समाजक निर्माण भ सकत ! अपन बच्चा पर बेसी सं बेसी नम्बर अनबाक बोझ नै थोपू, ओकरा प्रतिभा के  प्रोत्साहित करियो जाहि स ओ अपन पंसदीदा क्षेत्र में अपन करियर बना खुशहाल जीवन जी सकै !
सब बच्चा सब क्षेत्र में नीक प्रदर्शन नै क सकैय, मुदा कोनो नै कोनो क्षेत्र एहन जरुर छैक जाहि में अहांक बच्चा बहुत निक प्रदर्शन क सकैय, त आबो विलम्ब नै करू आ अपन अपन बच्चा के उज्ज्वल भविष्य हेतु ओकर प्रतिभा के पहचान करू आ ओकरा प्रोत्साहित करू ! समाज के दिखाबा लेल अपन बच्चा संग अन्याय नै करू ! बहुत रास एहन विकसित राष्ट्र छैक जाहि में बच्चा सबहक प्रतिभा के आकलन नर्सरी में भ जायत छैक,  आ ओकर प्रतिभा के आधार पर ही ओही बच्चा के करियर निर्धारण बचपने में भ जायत छैक,  मुदा एही क्षेत्र में भारत  अखन धैर बहुत पछुवायल अइछ, मुदा आब नै रहत कियाकी आब जापान स एकटा विशेष टेक्नोलॉजी जे बच्चा के जन्मजात क्षमता आ प्रतिभा के उजागर करैत सटीक करियर सुझाव दैइत  अइछ ओ अहांक शहर में सेहो आइब गेल !
विशेष जानकारी आ निःशुल्क  करियर सम्बंधित सलाह सुझाव लेल अहां अपन सवाल पठा सकैय छी, हमर इमेल अइछ  anandmohan.dmt@gmail.com , अहाँ व्हाटसैप पर सेहो अपन सवाल पठा सकै छी जाहि लेल हमर व्हाटसैप नम्बर रहल अइछ
+91-9871949259


Monday, 26 June 2017

शिक्षण प्रणाली में बदलाव अत्यंत जरुरी

 दुनिया का हर विकसित राष्ट्र या यु कहे समझदार देश अपने कुल जीडीपी का १०% हिस्सा शिक्षा व्यवस्था पर खर्च करता है I दुर्भाग्यवश हमारा देश ऐसे भ्रष्ट नेताओ के चपेट में है जो शिक्षा व्यवस्था को पूरा पूरा बर्बाद कर दिया है जिससे होशियार बच्चे पहले तो इस उलटे सिस्टम को जिसमे की कॉपी चेक करने वाला या स्कूल का शिक्षक ही बच्चो से कम जानकारी रखता है, और उसके बाद फिर आरक्षण की दोहरी मार झेले, ऐसे में हमारे देश में हर वर्ष लाखो प्रतिभाशाली बच्चे  इस भ्रष्ट तन्त्र को झेलते झेलते आत्महत्या कर लेते है और जो बचते है वो अपना लक्ष्य बदलकर कुछ और करने लगते है, और ये पुरे देश का नुकसान है क्योंकि उस देश को चलाने वाला सही व्यक्ति सही जगह नही पहुँच पा रहा है I ऐसे में  भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए शिक्षा क्षेएत्र में अनुसंधान कार्य की आवश्यकता है। अनुसंधान एक उद्देश्यपूर्ण और सविचार प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य ज्ञान को बढ़ाना और परिमार्जित करउपयोगी बनाना है। मानव ज्ञान के विकास के लिए अनुसंधान अत्यावश्यक है और तभी जीवन का विकास संभव है। अनुंधान एक उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक क्रिया है, इसकी प्रक्रिया वैज्ञानिक होती है।
क्रियात्मक अनुसंधान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यवहारिक कार्यकर्ता वैज्ञानिक विधि से अपनी समस्याओं का अध्ययन अपने निर्णय और क्रियाओं मे निर्देशन, सुधार और मूल्यांकन करते है। शिक्षा के क्षेत्र में समस्यायें बहुत है। क्रियात्मक अनुसंधान कक्षा कक्ष की विभिन्न स्थितियों की समस्याओं का हल खोजने, निदानात्मक मूल्यांकन और उपचारात्मक उपाय करने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, उपयोगी और सामयिक सिद्ध होता है। निःसंदेह शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का लक्ष्य नवीन शैक्षिक ज्ञान की खोज है जो उन समस्याओं को हल करने हेतु अनुसंधान शिक्षा के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं के निदान एवं उपचार में पर्याप्त सीमा तक उपयुक्त एवं कारगर सिद्ध होता है। क्रियात्मक अनुसंधानों का अभिप्रयास उन अनुसंधानों से है जिनका प्रमुख उद्देश्य शिक्षण संस्थानों की व्यावहारिक समस्याओं का हल खोजना है। शिक्षण के क्षेत्र में अब तक प्रायः मौलिक अनुसंधान एवं व्यावहारिक अनुसंधान होते आए हैं। इन दोनों प्रकार के अनुसंधानों में अनुसंधानकर्ता के लिए विद्यालय के जीवन से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होना आवश्यक नहीं है। इस समस्या को हल करने के लिए शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का विकास हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान का विचार सबसे पहले अमेरिका के कुछ शिक्षाशास्त्रियों द्वारा आरंभ किया गया था। इसमें प्रमुख रूप से कोलियर, लुइन, हेरिकन और स्टोफेन कोरे शामिल थे। स्टोफेन कोरे के मुताबिक क्रियात्मक अनुसंधान का अभिप्राय उस प्रतिक्रिया से है जिसके द्वारा अभ्यासकर्ता अपने निर्णयों तथा प्रतिक्रियाओं का पथ-निर्देशन एवं मूल्यांकन करने के लिए अपनी समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने के प्रयत्न करते हैं। किसी भी व्यवस्था को भली प्रकार संचालन के लिए उसके सदस्य ही उत्तरदायी होते है। उनके समक्ष समस्याएं आती है, उसकी गहनता को कार्यकर्ता ही भली प्रकार समझ सकता है। अतः कार्यकर्ता को कार्यप्रणाली की समस्या के चयन करने तथा उसके समाधान ढूंढने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए तभी वह अपने कार्य कौशल का विकास कर सकता है। कार्यकर्ता द्वारा स्वयं की कार्यप्रणाली की समस्या का चयन करने, उसका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने एवं समाधान ढूंढकर वर्तमान क्रिया में सुधार करने की प्रक्रिया को क्रियात्मक अनुसंधान कहते है।
क्रियात्मक अनुसंधान इस प्रकार अनुसंधान की नवीनतम शाखाओं में से एक है। संक्षेप में कह सकते हैं, क्रियात्मक अनुसंधान का अभिप्राय विद्यालय में संपादित की गई उस क्रिया है से जिसके द्वारा विद्यालय की कार्य-प्रणाली में सुधार, संशोधन एवं प्रगति के लिए विद्यालय के ही अभ्यासकर्ता जैसे-शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक तथा निरीक्षक विद्यालय की समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करते हैं।
क्रियात्मक अनुसंधान की प्रमुख विशेषता
क्रियात्मक अनुसंधान में विद्यालय की समस्याओं का विधिपूर्वक अध्ययन होता है। इसमें अनुसंधानकर्ता विद्यालय के शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक स्वयं ही होते हैं। इस अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य विद्यालय की कार्यप्रणाली में संशोधन कर सुधार लाना है। क्रियात्मक अनुसंधान में संपादित करने में शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। अनुसंधान के अंतर्गत तत्कालीन प्रयोग पर अधिक बल देते हैं। क्रियात्मक अनुसंधान के उत्पादक और उपभोक्ता दोनों ही स्वयं शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक होते हैं।  वीवी कामत ने अपने एक लेख में (कैन ए टीचर डू रिसर्च टीचिंग, 1975) भारत में अनुसंधान के कुछ क्षेत्रों का उल्लेख किया, जो इस प्रकार है। भिन्न-भिन्न भाषाओं में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों का शब्द भंडार, भारत में पब्लिक स्कूल, भाषा सीखने में भूलें, विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों की ऐच्छिक क्रियाएं। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों की लंबाई, भार तथा अन्य शारीरिक लक्षण, भूगोल एवं इतिहास की अध्यापन पद्धतियां शामिल हैं। बालकों एवं बालिकाओं की अध्ययन अभिरूचियां, कुशाग्र बुद्धि बालकों की शिक्षा, मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की शिक्षा भी शामिल करने पर जोर था। भारतीय शिक्षाशास्त्रियों का शैक्षणिक क्षेत्र में योगदान, माध्यमिक विद्यालयों में विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों एवं छात्रों की मन पसंद क्रियाएं (हाबीज) पर भी जोर दिया गया था। प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की शैक्षिक योग्यताएं, नगर तथा ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों की उपलब्धियों में अंतर, शिशु विद्यालयों में पढ़े हुए तथा न पढ़े हुए बच्चों का तुलनात्मक अध्ययन की बात कही गई थी। इन सूचियों पर गौर करने से इनमें कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो क्रियात्मक अनुसंधान के अंतर्गत आती है। उन पर अनुसंधान होने से शिक्षा की अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान संभव होगा और वे अनुसंधान राष्ट्र के विकास में सहायक होंगे। शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान की समस्याओं का स्रोत स्वयं स्कूल होता है। स्कूल की कार्य प्रणाली में प्रत्येक समस्या का उद्गम खोजा जा सकता है। समस्या का उचित चयन करने के बाद उसके स्वरूप का विश्लेषण जरूरी है। इसका अभिप्राय समस्या को निश्चित रूप से स्थापित करना है। ऐसा करना अनुसंधान की सफलता के लिए आवश्यक चरण है। समस्या को परिभाषित करने के बाद उसका मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। इस मूल्यांकन से अनुसंधानकर्ता को समस्या के अपेक्षित परिणाम का ज्ञान हो जाता है। शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों, प्रबंधकों तथा निरीक्षकों को क्रियात्मक अनुसंधान द्वारा कार्य करते हुए सीखने का अवसर मिलता है, जो ज्ञान कार्य करते हुए अर्जित किया जाता है, वह अधिक स्थायी तथा व्यावहारिक होता है।
अनुसंधान जरूरी

भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए अनुसंधान कार्य की जरूरी है। शिक्षा के क्षेत्र में इसकी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों में होने वाली उन्नति क्षैक्षिक क्षेत्र में उन्नति पर अवलंबित रहती है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा में कुछ नवीन और विशिष्ट अनुसंधानों किए जाने आवश्यक है। इन अनुसंधानों में क्रियात्मक अनुसंधान को प्रमुख स्थान देना होगा, क्योंकि इस प्रकार के अनुसंधानों का स्कूलों की गतिविधियों तथा कार्य करने वाले व्यक्तियों से प्रत्यक्ष संबंध होता है। हमारे स्कूल और शिक्षा तब तक परंपरागत लीक पर ही कायम रहेंगे जब तक शिक्षक, शैक्षिक प्रशास, अभिभावक और खुद छात्र इसका मूल्यांकन नहीं करेंगे। शिक्षा में यदि कोई विकास की दिशा दिखाई दे रही है शिक्षित व्यक्ति विद्यालय से बाहर आकर समाज एवं कार्यक्षेत्र में अपने को स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति के लिए शिक्षा को जवाबदेह माना जाता है, इसलिए इसमें सुधार होना आवश्यक है। इस लिहाज से सभी के सहयोग से क्रियात्मक अनुसंधान किया जाना आवश्यक है। खुद छात्र भी क्रियात्मक अनुसंधान से लाभांवित होंगे। साथ ही वे इसमें सहयोग और अपनी शैक्षिक क्षमता तथा योग्यता विकसित करने के लिए प्रेरित होंगे। अब जरुरत है की हर कोई अपना जन्मजात क्षमता और प्रतिभा को जाने और सही जगह अपने टैलेंट का पूरी तरह से इस्तेमाल करे I जन्मजात क्षमता को जानने के लिए अब एक आधुनिक और वैज्ञानिक टेस्ट जापान से भारत में भी आ गया है, अब आप भी अपनी छुपी हुई प्रतिभा को उजागर कर सकते है I 
इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने व अपने विचार साझा करने के लिए आप सदर आमंत्रित है I
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Sunday, 25 June 2017

ऐ मेरे वतन के लोगो ..कुछ याद उन्हें भी करलो.. जो बी.टेक करके आये....

कहानी B.tech की .....एक बार जरूर पढे... और समझे ...
#एक इंजीनियर की आत्म कथा Ankit Aman Prakash Ranjan Er. Chandrashekhar Prasad समेत सभी इंजीनियर्स विरादरी को समर्पित ...
अभी अभी एक महान आत्मा से बहस हो गई. ये महोदय कुछ साल पहले गाजियाबाद आ गए थे. गांव से दसवीं पास हैं और अभी एक तथाकथित कंपनी में काम कर रहे हैं. पिछले 10-15 सालों में गाजियाबाद ने बहुत बदलाव देखे हैं. तो इनकी भी तरक्की NCR के बदलते समय के साथ हुई. अभी ये 20-25 हजार कमाते हैं. साथ ही पैसे कमाने के और रास्ते भी जोड़ लिए है. उनकी नजर में वो सफल हैं. मुझे भी कोई दिक्कत नहीं है उनसे, लेकिन मेरी नजर में सफल और समृद्ध होनी की परिभाषा थोड़ी अलग है.
खैर, बात ये हुई कि उन्होंने वो बात छेड़ दी, जो पिछले 4 साल की इंजीनियरिंग के दौरान मैंने सबसे सुना है. चाहे वो मेरे पापा के दोस्त हो या कोई तथाकथित प्रबुद्ध इंसान. अच्छा बीटेक कर रहे हो? आजकल तो इतने बीटेक वाले हो गये हैं कि पूछ मत. जिसे देखो, वही बीटेक कर रहा है. तिवारी जी, इतने इंजीनियरिंग वाले सड़क पर घूम रहे हैं. फिर भी आपने इसका दाखिला करा दिया? 10 लाख लगाने के बाद भी 15-20 हजार की नौकरी इतनी मुश्किल से मिली रही है. आपने इतने पैसे बैंक में भी रख दिया होता, तो इससे ज्यादा ब्याज मिल जाता. और 10 लाख भी बच जाते. इतने पैसों से कोई व्यवसाय ही कर लेते तो ज्यादा कमाई हो जाती.
हर बार मैं इन बातों को हंस के टाल देता था. क्योंकि बड़ों को जवाब देने की आदत नहीं है. लेकिन ऐसी बातों से पापा घबरा जाते थे. कभी-कभी उन्हें लगने लगाता था कि उनसे गलती तो नहीं हो गई है.
मैं ये सुनते रहता हूं कि फलां के बेटे को देखो. दुकान कर लिया है, महीने का 30-35 हजार से ज्यादा ही कमा लेता है. फलां को देखो, पढ़ाई-लिखाई पर बिना पैसा खर्च किए विदेश चला गए और अब घर बना रहा है. वो मुनचुन अब कोयला का ठेकेदार हो गया है, और बोरी भर के पैसा कमा रहा है. और वो सचिन पुलिस में भर्ती हो गया है. अब तो उसके घरवालों की तो लॉटरी लग गई है.
बातें तो बहुत है लेकिन इतना काफी है, मेरा दर्द समझने के लिए. 4 सालों की पढ़ाई मेरी इन्हीं बातों के साथ ही तो हुई है. आज जब मेरा सपना पूरा हो रहा है. एक बड़ी कंपनी में बतौर इंजीनियर काम कर रहा हूं. लेकिन यहां भी एक ऐसे महाशय से मुलाकात हो गई, जो सफलता को पैसों की तराजू से तौलते हैं. कहने लगे मैं तो सिर्फ दसवीं पास हूं और 25-30 हजार कमा लेता हूं. और आप 10 लाख लगाकर बीटेक करके मुझसे कम कमाते हैं. क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का?
अब बस, बहुत सम्मान, अब मेरी सुनो.
हां, 10 लाख लगाकर की है बीटेक. उम्र से पहले बड़ा होकर, मेहनत करके, मां-बाप, भाई-बहनों से दूर रहकर. पता है क्यों कि बीटेक? ताकि अपने आप से उठकर कुछ सोच सकूं. दुकान और विदेश जाने की सोच से बाहर निकलूं. स्वार्थी न बनूं. सिर्फ अपनी तिजोरी भरने के बारे में न सोचूं, बल्कि लोगों के बारे में सोचूं. आप लोगों की तरह नहीं. जो समाज बदलने की बातें करते हैं लेकिन करते नहीं.
मुझे अब तक एक भी बीटेक वाले सड़क पर घूमता नहीं दिखा. अगर आपको मिला है तो जाकर उसकी सच्चाई देखो. सब कुछ समझ जाओगे. आपने सिर्फ उसे बीटेक पढ़ते सुना है. लेकिन उसने बीटेक में क्या किया है, वो नहीं देखा है. किसी एक को सड़क पर घूमते देखकर अंदाजा मत लगाइए. और न ही सबको एक तराजू में तौलिए. अगर सब लोगों आपकी तरह सोचने लगे तो देश में न कलाम होते न रमन. मैं भगवान का शुक्रिया करता हूं कि इस देश में मेरे मां-बाप जैसे लोगों को बनाया हैं. वरना पता नहीं इस देश का क्या होता.
चलो मान लिए कि आपको बीटेक वालों से ज्यादा पैसा मिलता होगा. वो पैसा तुम्हारे लिए मायने रखता होगा. हमारे लिए नहीं, क्योंकि हमें अपने काम से प्यार है. इंजीनियर होने के एहसास से प्यार है. रही बात पैसों की तो हम चाहे शुरुआत कैसी भी करें. एक साल के अनुभव के बाद आपके 15 साल की मेहनत को पीछे छोड़ देंगे. जानते हो क्यों? क्योंकि हमने बीटेक किया है.
एक आखिरी बात. आपने अपने बेटे को विदेश भेजने के बजाए 1 सेमेस्टर के लिए भी बीटेक कराया होता, तो दोनों को बीटेक का महत्व पता होता. 50 सबजेक्ट के डेढ़ सौ पेपर और 32 प्रैक्टिकल्स पास करने के बाद कोई बनता है बीटेक. दम है तो बीटेक की 4 साल की पढ़ाई करके दिखाओ. फिर मैं बताऊंगा कि कितने बीटेक वाले सड़क पर घूम रहे हैं.
बीटेक करके एक इंजीनियर होने का एहसास मिला. जान की बाजी लगाने वाले दोस्त मिले, प्यार मिला जिसके लिए जान भी दिया जा सकता है, देश के लिए कुछ कर जाने की सोच मिली, मुश्किल हालात को हैंडल करने की ताकत मिली.
आप दिमाग पर जोर न डालें. ये बातें समझ नहीं आएगी. पता है क्यों? क्योंकि आपने बीटेक नहीं किया